प्रश्न ये है रात में किस समय तहज्जुद पढ़ना अफ़ज़ल है?
जवाब: हमें मालूम होना चाहिए कि वित्र की नमाज़ का समय इशा नमाज़ के बाद से शुरू होता है और फ़जर तक रहता है, तो वित्र की नमाज़ इशा और फ़जर नमाज़ के बीच में पढ़ी जाएगी ।
इसकी दलील:
हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम इशा नमाज़ से फ़ारिग़ होने के बाद इशा और फ़जर के बीच में ११ रकआत तहज्जुद पढ़ते थे, हर दो रकरत के बाद सलाम फेर देते और एक रकअत वित्र पढ़ते थे ।” (बुख़ारी: २०३१), (मुस्लिम: ७३६)
जहाँ तक तहज्जुद पढ़ने का सबसे अफ़ज़ल समय का सवाल है तो वह है आधी रात के बाद अंतिम तिहाई का हिस्सा है ।
अर्थात्: आदमी रात को ६ भाग में बराबर-बराबर बांटे और प्रथम (शरू) के ३ भाग (यानी आधी रात) तक सोए और चौथे और पांचवे भाग में नमाज़ पढ़े और फिर रात के छटवें भाग में आराम करे ।
इसकी दलील: अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) बयान करते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “अल्लाह तआला को दाऊद (अलैहिस्सलाम) का रोज़ा और नमाज़ बहुत पसंद है, वह आधी रात तक सोते फिर नमाज़ पढ़ते और फिर रात के छटवें पहर में आराम करते । और वह एक दिन रोज़ा रखते थे और एक दिन रोज़ा नहीं रखते थे ।” (बुख़ारी: ३४२०), (मुस्लिम: ११५९)
अगर कोई इस सुन्नत पर अमल करना चाहे तो वह रात का हिसाब कैसे करे?
रात को ६ भागों में बराबर-बराबर बाँटे, पहले ३ भाग (आधी रात) तक सोए, फिर चौथे और पाँचवे भाग में नमाज़ पढ़े और फिर छटवें भाग में आराम करे ।
इसी लिए हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) की हदीस में है, वह कहती हैं कि: “मैंने रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम को सहर के समय हमेशा सोते हुए पाया ।”
(बुख़ारी: ११३३), (मुस्लिम: ७४२)
इसी तरीक़े पर अमल करते हुए एक मुस्लिम अफ़ज़ल समय में तहज्जुद की नमाज़ पढ़ सकता है, जैसे कि अब्दुल्लाह बिन अम्र (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) की हदीस में है जो अभी-अभी गुज़री है ।
ख़ुलासा: तहज्जुद किस समय में पढ़ना अफ़ज़ल है उसको तीन दर्जा में बाँटा जा सकता है ।
पहला दर्जा: पहले तीन भाग (आधी रात) तक सोए, फिर चौथे और पाँचवे भाग में नमाज़ पढ़े और फिर छटवें भाग में आराम करे । जैसे कि अभी-अभी गुज़रा ।
इसकी दलील: अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन अल्-आस (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) की सदीस जो अभी कुछ पहले गुज़री ।
दूसरा दर्जा: रात की अंतिम तिहाई पहर में नमाज़ पढ़े ।
इसकी दलील:
अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते है कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “जब रात का अंतिम पहर होता है तब अल्लाह तआला हर रात में समाए-दुनिया (पहले आसमान) पर उतरता है और कहता है: “कोई है जो मुझे पुकारे और मैं उसकी पुकार को स्वीकार (क़बूल) करूं, कोई है जो मुझ से माँगे और मैं उसकी माँग को पूरा करूं, कोई है जो मुझ से माफ़ी चाहे और मैं उसे माफ़ कर दूँ ।” (बुख़ारी: ११४५), (मुस्लिम: ७५८) ऐसा ही हज़रत जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस में है जो आने वाली है ।
अगर इस बात का डर हो कि वह रात के अंतिम पहर में बेदार नहीं हो सकता है तो रात के शुरू में पढ़ ले या रात के किसी भी समय पढ़ ले ।” और यही तीसरा दर्जा है ।”
तीसरा दर्जा: रात के शुरू में या रात के जिस भाग में आसानी हो उसमें तहज्जुद पढ़ ले ।
इसकी दलील:
हज़रत जाबिर (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “जिसे इस बात का डर हो कि रात के अंतिम पहर में नहीं उठ सकेगा तो उसको शुरू में ही वित्र पढ़ लेनी चाहिए, और जो रात के अंतिम पहर में पढ़ने में रुची रखता हो तो उसे चाहिए कि रात के अंतिम पहर में वित्र पढ़े, इसलिए कि रात की अंतिम नमाज़ में फ़रिश्ते हाज़िर होते है और यह अफ़ज़ल है ।” (मुस्लिम: ७५५)
रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने अबू-ज़र, अबू-दर्दा और अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हुम) को ये वसीयत फ़रमाई: “सोने से पहले वित्र पढ़ लिया करो ।”
अबू-ज़र (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस जिसे (निसाई फिस्-सुननुल्-कुब्रा: २७१२) में बयान किया है और शैख़ अल्बानी (रहेमहुल्लाह) ने सहीहा: २१६६ में सही कहा है ।
अबू-दर्दा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस अहमद ने: २७४८१ और अबू-दाऊद ने: १४३३ में बयान किया है और शैख़ अल्बानी (रहेमहुल्लाह) ने ‘सही अबू-दाऊद’ : ५/१७७ में ‘सही’ कहा है ।
और अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस मुस्लिम ने: ७३७ में बयान किया है ।
हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती है कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम रमज़ान और दूसरे दिनों में ११ रकअत से ज़्यादा नहीं पढ़ते थे ।” (बुख़ारी: ११४७) (मुस्लिम: ७३८)
एक हदीस में जो कि सही मुस्लिम में है, हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने १३ रकअत पढ़ी ।
इस से ये पता चलता है ज़्यादातर रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम तहज्जुद ११ रकअत ही पढ़ते थे पर कभी-कभी १३ भी पढ़ा करते थे । इस प्रकार से दोनों हदीसों में ततबीक़ (समानता) हो जाएगी ।
क) आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम जब रात में तहज्जुद केलिए उठते तो ये दुआ पढ़ते: “अल्लाहुम्म, रब्ब जिब्राईल, व मीकाईल, व इस्राफ़ील, फ़ातिरस्समावाते वल्-अर्ज़े, आलिमल्-ग़ैबे वश्-शहादते, अन्त तह्-कोमो बैन इबादेक फ़ीमा कानू फ़ीही यख्-तलेफ़ून्, एह्-देनी लिमख्-तुलेफ़ फ़ीहे मिनल्-हक्क़े बेइज़्निक, इन्नक तह्दी मन्-तशाओ इला सिरातिम-मुस्तक़ीम ।” (मुस्लिम: ७७०)
ख) इब्ने-अब्बास (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) बयान करते हैं कि: “नबी सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम जब तहज्जुद पढ़ते तो ये दुआ पढ़ते: ‘अल्लाहुम्म, लकल्-हम्दु, अन्त नूरूस्समावाते वल्-अर्ज़े, व लकल्-हम्दु, अन्त रब्बुस्समावाते वल्-अर्ज़े व मन् फ़ीहिन्न, अन्तल्-ह्क्क़ु, व वाअ्दु कल्-हक्क़ु, व क़ौलुकल्-हक्क़ु, व लिक़ा-ओकल्-हक्क़ु, वल्-जन्न्तु हक्क़ुन्, वन्-नारू हक्क़ुन्, वन्नबीयून हक्क़ुन्, वस्साअतु हक्क़ुन्, अल्लाहुम्म, ल्-क अस्लमतु, व बि-क आमन्तु, व अलैक तवक्कल्तु, व एलैक अनब्तु, व बिक ख़ासम्तु, व एलैक हाकम्तु, फ़ग़-फ़िर्ली मा क़द्-दम्तु, वमा अख्-ख़र्तु वमा अस्-र्रतु, वमा आलन्तु, अन्त इलाही, ला इला ह इल्ला अन्त ।” (बुख़ारी: ७४९९) (मुस्लिम: ७६८)
क) ठहर-ठहर का क़ुरआन पढ़े, जल्दी-जल्दी चबा कर न पढ़े ।
ख) हर आयत अलग-अलग करके पढ़े, २ या ३ आयतों को एक साथ मिलाकर न पढ़े, बल्कि हरेक आयत पर रुक कर पढ़े ।
ग) जब किसी तस्बीह वाली आयत से गुज़रे तो सुबहानअल्लाह कहे, और जब सवाल वाली आयत से गुज़रे तो सवाल करे, और जब पनाह माँगने वाली आयत से गुज़रे तो पनाह माँगे ।
ऊपर बयान की गई चीज़ों की दलील:
हज़रत हुज़ैफ़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि: “ मैंने एक रात नबी सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम के साथ नमाज़ पढ़ी, तो आपने सूरह बक़रह पढ़नी शुरू की, मैंने सोचा कि १०० आयत पढ़कर रुकुअ में जाएंगे लेकिन आप पढ़ते गए । मैंने फिर सोचा कि पूरी सूरह पढ़कर रुकूअ करेंगे, लेकिन आपने सूरह निसा शुरू कर दी और उसे पढ़ा, फिर सूरह आले-इमरान शुरू की और उसे पढ़ा । आप ठहर-ठहर कर पढ़ते थे, और जब किसी तस्बीह वाली आयत से गुज़रे तो सुबहानअल्लाह कहा, और जब सवाल वाली आयत से गुज़रे तो सवाल किया, और जब पनाह माँगने वाली आयत से गुज़रे तो पनाह माँगी । फिर आपने रुकूअ किया और यह दुआ पढ़ने लेगे ‘सुब्हान रब्बियल्-अज़ीम’। आपका रुकूअ भी क़याम के बराबर था, फिर आपने ‘समिअल्लाहु लिमन् हमिदह’कहा, फिर रुकूअ के बराबर देर तक खड़े रहे, फिर सज्दा किया और यह दुआ पढ़ी ‘सुब्हान रब्बियल्-आला’ और आपका सज्दा भी क़याम के बराबर था ।” (मुस्लिम: ७७२)
हज़रत उम्मे-सल्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि उनसे रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम की तिलावत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा: “आप सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम हर आयत पर रुक-रुक कर पढ़ते थे जैसे: (बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम $ अल्हमदु लिल्लाही रब्बिल् आलमीन $ अर्रह्मा निर्रहीम $ मालिकि यौमिद्दीन $ ) (अहमद: २६५८३), और दार-क़ुतनी (११८): ने इसकी सनद को सही कहा है और सब रावी सिक़ा हैं । इमाम नववी ने अल्-मज्मूअ :३/३३३ में सही कहा है)
इब्ने उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं कि एक आदमी खड़ा हुआ और कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! रात की नमाज़ (तहज्जुद) कैसे पढ़ी जाए? तो नबी सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “रात की नमाज़ दो-दो रकअत है और जब किसी को सुबह होने का डर होतो एक रकअत वित्र पढ़ ले ।” (बुख़ारी: ९९०), (मुस्लिम: ७४९)
इस से मुराद यह है हर २ रकअत के बाद सलाम फेर दे, एक साथ चार रकअत न पढ़े ।
पहली रकअत में सूरतुल्-आला’, दूसरी में ‘सूरतुल्-काफ़िरून’ और तीसरी में ‘सूरतुल्-इख़्लास’ पढ़ना सुन्नत है ।
इसकी दलील:
ओबै इब्ने काअब (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम वित्र की पहली रकअत में सूरतुल्-आला’, दूसरी में ‘सूरतुल्-काफ़िरून’ और तीसरी में ‘सूरतुल्-इख़्लास’ पढ़ा करते थे ।” (अबू-दाऊद: १४२३), (निसाई: १७३३), (इब्ने माजह: ११७१) इमाम नववी ने अल्-ख़ुलासा: १/५५६ में और शैख़ अल्बानी (रहेमहुल्लाह) ने (सही-निसाई: १/२७३) में बयान किया है ।
इस से मुराद दुआ करना है, और यह तीसरी रकअत में की जाती है जिसमें ‘सूरतुल्-इख़्लास’ पढ़ी जाती है ।
वित्र में कभी दुआ करना और कभी न करना सुन्नत है, और यह सहाबा से साबित है । शैख़ुल्-इस्लाम इब्ने तैमीयह (रहेमहुल्लाह) ने इसी को इख़्तियार किया है । बेहतर यह है कि ज़्यादातर से दुआ न की जाए ।
क्या वित्र की दुआ में हाथ उठाना चाहिए?
सही यही है कि अपने दोनों हाथों को उठाए, जमहूर ओलमा (ज़्यादातर ओलमा) का यही कहना है । और इसका प्रमाण (सोबूत) उमर (रज़ियल्लाहु अन्हु) से है जैसा कि इमाम बैहक़ी (रहेमहुल्लाह) ने इसको बयान किया है और सही कहा है ।
इमाम बैहक़ी ने (रहेमहुल्लाह) ने बयान किया कि: “बहुत सारे सहाबए-केराम वित्र की दुआ में अपने दोनों हाथों को उठाते थे ।” (अस्-सुनन् अल्-कुब्रा: २/२११ में देखिए)
वित्र की दुआ किस से शुरू होनी चाहिए?
सही बात यह है कि: पहले अल्लाह की तारीफ़ (प्रशंसा) करे फिर रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम पर दरूद भेजे, फिर दुआ करे । ऐसी दुआ के क़बूल होने की संभावना ज़्यादा होती है ।
इसकी दलील:
फ़ुज़ाला बिन ओबैद (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने एक आदमी को नमाज़ में दुआ करते हुए देखा, उसने रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम पर दरूद नहीं भेजा था, आपने फ़रमाया: ‘इसने जल्दी की’ फिर उसको बुलाया और उसे और दूसरे लोगों से फ़रमाया: “जब तुम में से कोई दुआ करे तो पहले अल्लाह की तारीफ़ करे फिर नबी सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम पर दरूद पढ़े, फिर जो चाहे दुआ करे ।” (तिर्मिज़ी: ३४७७)
इमाम इब्ने क़य्यिम (रहेमहुल्लाह) ने कहा: “दुआ में मुस्तहब यह है कि पहले अल्लाह की तारीफ़ की जाए, फिर अपनी आवश्यकता अनुसार (ज़रूरत के मुताबिक़) जो माँगना है माँगे ।” (अल्-वाबेलुस्सैयेब: ११० में देखिए)
क्या दुआए-क़ोनूत के बाद दोनों हाथों को मुंह पर फेर सकते हैं??
सही बात यह है कि दुआए-क़ोनूत के बाद मुंह पर हाथ नहीं फेरना चाहिए, इसलिए कि इसकी कोई दलील मौजूद नहीं है ।
इमाम मालिक (रहेमहुल्लाह) से दुआ के बाद मुंह पे हाथ फेरने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इसका इंकार किया और कहा: “मुझे नहीं पता ।” (किताबुल्-वित्र, लिल्-मर्वज़ी पृष्ठ न०: २३६ में देखिए)
शैख़ुल्-इस्लाम इब्ने तैमीयह (रहेमहुल्लाह) ने कहा: “दुआ के बाद चेहरे पे हाथ फेरने के बारे में एक या दो हदीस मिलती है लेकिन वह ज़ईफ़ (कमज़ोर) है जिसको दलील नहीं बनाया जा सकता ।” (फ़तावा २२/५१९ में देखिए)
रात के अंतिम पहर में दुआ करना की ताकीद आई है, अगर रात के अंतिम समय में वित्र में क़ोनूत पढ़ ले तो काफ़ी है । अगर क़ोनूत नहीं किया तो इस समय दुआ करना सुन्नत है, इसलिए कि यह ऐसा समय है जिसमें दुआएं क़बूल होती हैं और अल्लाह तआला समाए-दुनिया (पहले आसमान) पर उतरता है । जैसा की अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “जब रात का अंतिम पहर होता है तब अल्लाह तआला हर रात में समाए-दुनिया (पहले आसमान) पर उतरता है और कहता है: “कोई है जो मुझे पुकारे और मैं उसकी पुकार को स्वीकार (क़बूल) करूं, कोई है जो मुझ से माँगे और मैं उसकी माँग को पूरा करूं, कोई है जो मुझ से माफ़ी चाहे और मैं उसे माफ़ कर दूँ ।” (बुख़ारी: ११४५), (मुस्लिम: ७५८)
इसकी दलील:
ओबै इब्ने काअब (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम वित्र की पहली रकअत में सूरतुल्-आला’, दूसरी में ‘सूरतुल्-काफ़िरून’ और तीसरी में ‘सूरतुल्-इख़्लास’ पढ़ा करते थे । और जब सलाम फेरा तो आपने तीन बार ‘सुब्हानल्-मलेकिल्-क़ुद्दूस’ कहा ।” (निसाई: १७०२) इमाम नववी और शैख़ अल्बानी (रहेमहुल्लाह) ने इसे सही कहा है जैसा कि अभी-अभी गुज़रा ।
अब्दुर्रहमान इब्ने अब्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते है कि: “तीसरी बार सुब्हानल्-मलेकिल्-क़ुद्दूस’ कहते हुए अपनी आवाज़ ऊँची करते थे ।” (अहमद: १५३५४), निसाई: १७३४) और शैख़ अल्बानी (रहेमहुल्लाह) ने सही कहा है । (तहक़ीक़ मिश्-कातुल्-मसाबीह १/३९८ में देखिए)
तहज्जुद केलिए आदमी का अपनी पत्नी, परिवार और इसी प्रकार पत्नी का अपने पति और घर वालों को उठाना सुन्नत है और यह एक प्रकार से अच्छे काम केलिए एक-दूसरे का सहयोग करना है ।
इसकी दलील:
हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम रात को नमाज़ पढ़ते रहते और मैं आपके और क़िब्ला के बीच लेटी रहती, जब आप वित्र पढ़ने का इरादा करते तो मुझे जगा देते और मैं वित्र पढ़ लेती ।” (बुख़ारी: ५१२), (मुस्लिम: ५१२)
हज़रत उम्मे-सल्मा (रज़ियल्लाहु अन्हा) कहती हैं कि: “एक रात रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम जागे और कहा: “सुब्हानल्लाह! कैसे ख़ज़ाने और कैसे फ़ितने उतारे गए, कमरों में रहने वालियों को कौन जगाएगा? (आपकी मुराद आपकी पत्नियाँ थीं) ताकि वह नामज़ पढ़ें, दुनिया में कितनी महिलाएं कपड़े पहने हुए आख़िरत में नंगी होंगी ।” (बुख़ारी: ६२१८)
तहज्जुद पढ़ते हुए थक जाए तो उसे चाहिए कि बैठकर पढ़े ।
हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि: “रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम मस्जिद में दाख़िल हुए तो आपने दो खंबों के बीच में रस्सी बंधी हुए देखी तो फ़रमाया: ‘यह क्या है’? लोगों ने जवाब दिया: यह ज़ैनब की रस्सी है जब वह नमाज़ पढ़ते हुए थक जाती हैं तो उसका सहारा लेती हैं, तो रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने कहा: “उसे खोल दो, तुम में से कोई उसी समय तक नामज़ पढ़े जब तक उसके शरीर में चुस्ती बाक़ी हो, जब वह सुस्त पड़ जाए या थक जाए तो उसे चाहिए कि बैठ जाए ।” (बुख़ारी: ११५०), (मुस्लिम: ७८४)
और जब झपकी (ऊँघ) आए तो सो जाए और तरोताज़ा होकर उठे और नमाज़ पढ़े ।
हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम न फ़रमाया: “जब तुम में से किसी को ऊँघ आए तो वह सो जाए, ताकि नींद चली जाए, इसलिए कि जब तुम में से कोई ऊँघते हुए नमाज़ पढ़ेगा तो हो सकता है कि वह मग्फ़िरत की दुआ करते-करते अपने आपको गाली देने लगे ।” (बुख़ारी: २१२), (मुस्लिम: ७८६)
इसी प्रकार अगर कोई रात को क़ुरआन की तिलावत कर रहा हो और उसे नींद आने लगे तो उसे चाहिए कि सो जाए ताकि उसे ताक़त मिल जाए ।
अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते हैं कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “जब तुम में से कोई रात में तहज्जुद पढ़े और क़ुरआन पढ़ते हुए उसे यह न मालूम हो सके कि वह क्या पढ़ रहा है, तो उसे चाहिए कि सो जाए ।” (मुस्लिम: ७८७)
मिसाल के तौर पर, अगर किसी की आदत तीन रकअत वित्र पढ़ने की हो लेकिन वह सो गया या किसी बीमारी के कारण न पढ़ सका, तो उसको दिन में चार रकअत (दो-दो करके) पढ़ेगा । इसी प्रकार से अगर उसकी आदत ५ रकअत पढ़ने की थी लेकिन किसी बीमारी या सोने के कारण न पढ़ सका तो वह दिन में ६ रकअत (दो-दो करके) पढ़ेगा । इसी प्रकार से और..., और नबी सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ऐसा ही करते थे, इसलिए रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम की आदत थी कि आप ११ रकअत पढ़ते थे जैसा कि हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि: “ जब आप सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम नींद या किसी कष्ट और तकलीफ़ के कारण नहीं पढ़ पाते तो दिन में १२ रकअत पढ़ते थे ।” (मुस्लिम: ७४६)