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beforeFajronColorIcon / भूमिका/ ( उसकी रकअतों की तादाद 3 सुन्नतें )
brightness_1 सुन्नत पर अमल करने का हमारे अस्लाफ़ के कुछ उदाहरण

१) नोमान बिन सालिम ने अम्र बिन औस से रिवायत किया है कि उनसे अम्बसा बिन अबी सुफ़ियान ने बयान किया, वह कहते हैं कि उम्मे-हबीबह (रज़ियल्लाहु अन्हा) बयान करती हैं कि मैं ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम को यह फ़रमाते हुए सुना: “जो व्यक्ति दिन और रात में १२ रकआत सुन्नत पढ़ता है, उस के लिए जन्नत में घर बना दिया जाता है ।” (मुस्लिम : १७२७)

अम्र बिन औस कहते है: “जब से मैं ने अम्बसा से ये हदीस सुनी है उस दिन से मैं ने इन सुन्नतों को नहीं छोड़ा ।”

नोमान बिन सालिम बयान करते हैं: “जब से मैं ने अम्र बिन औस से ये हदीस सुनी है उस दिन से मैं ने इन सुन्नतों को नहीं छोड़ा ।”

२) हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान फ़रमाते हैं कि: चक्की पर आटा पीसने के कारण हज़रत फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के हाथों में छाले पड़ गए थे, जिसकी शिकायत उन्होंने नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम से की । इसी बीच कुछ क़ैदी आप सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम के पास आए, हज़रत फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) आपके पास गईं लेकिन आपको नहीं पाया, हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से मुलाक़ात हो गई और उनको बता दिया । जब रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम आए तो हज़रत आएशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) ने फ़ातिमा (रज़ियल्लाहु अन्हा) के आने के बारे में बतला दिया, इसी बीच आप सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम हमारे बीच आए जबकि हम अपने बिस्तर पर थे और उठना ही चाहा तो आप सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने कहा: “अपनी जगह पर रहो” आप हमारे बीच बैठ गए, मैं ने आपके क़दमों की ठंढक अपने सीने में महसूस किया । फिर आप सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम ने फ़रमाया: “क्या मैं तुम दोनों को वह बात न बताऊँ जो उससे बेहतर है जिसका तुम दोनों ने सवाल किया? जब तुम अपने बिस्तर पर जाओ तो ३४बार अल्लाहु-अकबर, ३३बार सुबहान-अल्लाह और ३३बार अलहम्दु-लिल्लाह कह लिया करो, यह तुम दोनों केलिए ख़ादिम (नौकर) से बेहतर है ।” (बुख़ारी: ३७०५) (मुस्लिम: २७२७)

एक और हदीस में अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान फ़रमाते हैं: “जब से मैं ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम से यह फ़रमान सुना है उस समय से मैं ने इस वजीफ़ा (दुआ) को नहीं छोड़ा, किसी ने पूछा: सिफ्फ़ीन की रात भी नहीं? तो आप ने जवाब दिया: सिफ्फ़ीन की रात भी नहीं ।” (बुख़ारी: ५३६२) (मुस्लिम: २७२७)

जबकि यह मालूम है कि सिफ्फ़ीन की रात एक युद्ध की रात  थी, जिसके कमांडर ख़ुद अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) थे, फिर भी उन्होंने इस सुन्नत पर अमल करना नहीं छोड़ा ।

३) हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) जनाज़ा की नमाज़ पढ़कर लौट जाया करते थे और दफ़न में शामिल नहीं रहते, और इसी को सुन्नत समझते थे । दफ़न करने की फ़ज़ीलत को नहीं जानते थे, परन्तु जब अबू-हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस आप तक पहुंची तो सुन्नत के छूटने पर बहुत पछताए ।

विचार करें फिर उन्होंने क्या किया?!

अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) के मुठ्ठी में जो कंकरी थी उसको ज़मीन पर दे मारा, और कहा: “हम ने बहुत क़रारीत (पुण्य का अवसर) खो दिया ।” (बुख़ारी: १३२४)  (मुस्लिम: ९४५)

इमाम नौवी (रहेमहुल्लाह) ने इस हदीस के बारे में लिखा है: “सहाबा को जब किसी नेकी के बारे में पता चलता तो बड़े उल्लास (शौक़) से उसकी ओर बढ़ते, और अगर उस से महरूम रहते तो दुःख व्यक्त करते ।” (देखिए: अल्-मिन्हाज : ७/१५)

brightness_1 सुन्नत पर अमल करने कुछ फ़ायदे

प्यारे भाई! सुन्नत पर अमल करने के अनेकों फ़ायदे हैं:

१) मुहब्बत के पद तक पहुंचना, जब इंसान नवाफ़िल (सुन्नत नमाज़) माध्यम से अल्लाह की क़ुर्बत हासिल करता है तो अल्लाह उस से मुहब्बत करने लगता है ।

इमाम इब्ने क़य्यिम (रहेमहुल्लाह) ने कहा: “अल्लाह तुम से उसी समय मुहब्बत करेगा जब तुम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष (ज़ाहिर और बातिन) रूप में रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम का अनुसरण (इत्तेबा) करोगे । उनको सच्चा जानोगे, उनकी बातों का पालन करोगे, उनकी दावत क़बूल करोगे, और दिल से उन्हीं के आदेशों को प्राथमिकता दोगे । दूसरों के फ़ैसले को छोड़कर उन्हीं के फ़ैसलों पर आओगे, तमाम लोगों की मुहब्बत को छोड़कर उन्हीं की मुहब्बत को अपनाओगे, और दूसरों का अनुसरण छोड़कर उन्हीं की इत्तेबा करोगे । यदि आप इन चीजों को नहीं कर सकते हैं, तो अपने आपको शर्मिंदा न करें और वापस लौट जाएँ और अल्लाह का नूर (रोशनी) की तलाश करें, क्योंकि आप कुछ भी नहीं हैं ।”(मदारेजुस्सालेकीन : ३/३७ में देखें)

२) अल्लाह तआला का संगति (मइयत) हासिल होना । जब बंदे को अल्लाह की मइयत हासिल हो जाती है तो अल्लाह उसे अच्छे कामों की तौफ़ीक़ देता है । उस समय बंदा वही काम करता है जिसे अल्लाह तआला पसंद करता है क्योंकि जब बंदा मुहब्बत को पा लेता है तो मइयत भी मिल जाती है ।

३) अल्लाह की मुहब्बत मिलने का फ़ायदा ये होता है कि बंदे की दुआ क़बूल होती है । वह इस प्रकार से कि बंदा नफ़िल के माध्यम से अल्लाह से क़रीब होता है तो वह मुहब्बत को पा लेता है और जो मुहब्बत को प्राप्त कर लिया उसकी दुआ ज़रूर क़बूल होती है ।

इन तीनों चीजों के प्रमाण (दलीलें):

अबू-हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु) बयान करते है कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम हदीसे क़ुदसी में इर्शाद फ़रमाते हैं: “अल्लाह तआला फ़रमाता है: जिसने मेरे किसी दोस्त से दुश्मनी की तो मैं उसके विरुद्ध जंग का एलान करता हूँ । और जिस चीज़ से मेरा भक्त मुझसे क़रीब होना चाहता है वह चीज़ है जिसको मैंने उसके उपर फ़र्ज़ किया है । मेरा कोई भक्त जब नफ़िल के माध्यम से मुझसे क़रीब होने का प्रयास करता रहता है यहाँ तक कि मैं उस से प्रेम करने लगता हूँ, और जब मैं उस से मुहब्बत करने लगता हूँ तो मैं उसका कान बन जाता हूँ जिस से वह सुनता है, और उसकी आँख बन जाता हूँ जिस से वह देखता है और उसका हाथ बन जाता हूँ जिस से वह पकड़ता है और उसका पैर (पद) बन जाता हूँ जिस से वह चलता है । अगर वो मुझसे कुछ माँगे तो मैं ज़रुरु देता हूँ, और अगर वो पनाह माँगे तो मैं उसे ज़रुरु पनाह (शरण) देता हूँ, मैं किसी बात में उतना संकोच नहीं करता जितना संकोच एक मोमिन की जान के बारे में करता हूँ क्यूंकि वो मौत को नापसंद करता है और मैं उसे तकलीफ़ देना नापसंद करता हूँ ।” (बुख़ारी: ६५०२) 

४) फ़्राएज़ में जो कोताही और कमी रह जाती है, नवाफ़िल नमाज़ उसको पूरा कर देती है ।

इसकी दलील:

अबू-हुरैरह (रज़ियल्लाहु अन्हु) कहते हैं कि मैं ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहे व् सल्लम को फ़रमाते हुए सुना है कि: “क़यामत के दिन बंदे के आमाल में सबसे पहले नमाज़ के बारे में पूछा जाएगा । अगर नमाज़ ठीक रही तो सफल और कामयाब हो गया । अगर इसमें असफल और नाकाम रहा तो बाक़ी में भी असफल और घाटा उठाएगा । अगर फ़्राएज़ (अनिवार्य) में कुछ कमी रह गई तो अल्लाह तआला कहेगा: “देखो क्या मेरे बंदे की कोई नफ़िल (इबादत) है? तो इस प्रकार से फ़्राएज़ की कमी और कोताही को पूरा कर दिया जाएगा, फिर बाक़ी तमाम आमाल का हिसाब भी इसी प्रकार से लिया जाएगा ।” (अहमद: ९४९४), (अबू-दाऊद: ८६४), (तिर्मिज़ी: ४१३) और अल्बानी (रहेमहुल्लाह) ने इसे (सहीहुल्-जामेअ १/४०५) में सही कहा है ।